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जंगल बिन आयुष्य पहचान का मर्म कितना नहीं बल्कि कैसे जिए मुसाफ़िर मंज़िल बढ़ती जा रही सफ़र को कैसे भी चार दिन की चाँदनी कैसी हमारी पहचान यारों करते कर्मभूमिपरफलकेलिए कब कहां कैसे किससे होंता पता न विश्वासवरुण एकदिनमौज-मस्तीकरलेंवक्तकेबहावमेंमनकीकरलेइसबहतेहुएपड़ावपरथामलेपरिवारकेअनमोलसाथकोपलभरकेलिएउनकेलिएजीले भाई-बहन बेशुमार

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